कहते हे इंसान को अक्सर उसीसे मोहबत हो जाता हे जिसे होने की कोई उमीद नहीं होता। कास ये सब इंसान के बस में होता। तो सायद मेरे कहानी कुछ और ही बयां कर रहे होते। Love Story in Hindi के इस भाग में बात होगी एक ऐसे सफर की जो आपको ले चलेगी अपने आगोस में।
और महोबत के इस सफर में, में रोहित आपका स्वागत करता हूँ। तो चलिए इस सफर में मेरे हम सफर बनिए।
तो सफर सुरु होता हे उत्तरप्रदेश के एक छोटे से सहर कासगंज से। शुरुआत होती हे छोटे छोटे आँखों के उन छोटे छोटे सपनो की जिनके पंख आसमान में उड़ने को तैयार हे। सुबह सुबह माँ की आवाज़ घर में गूंज उठती हे।
“बनिता”ऊठ जाओ बेटी। आज दूद वाला नहीं आने वाला ,पिताजी भी नहीं हे तुम्हें ही लाना पड़ेगा। अब जल्दी जाओ बरना दूद ख़तम हो जायेगा। उठ जाओ बेटा जल्दी।
सुभे के १० बजने वाले हे। पंडितजी (पिताजी) के प्यार ने बिगाड़ दिया हे तुम्हे।
आखिर माँ अपने मिशन में कामयाब हो ही गयी। हमे जगा ही दिया। माँ की डांट सुने बिना नींद टूटने का नाम ही नहीं लेती हे। वैसे में हूँ बनिता अपने पिताजी की लाड़ली। अगर पिताजी के जगह माँ काम पे जाती न तो में दिन भर आरामसे सो पाती।
वैसे सच कहूं तो उम्र कब निकल गया पता ही नहीं चला। माँ हमेसा ही मुझे कहती रही वक़्त किसी का सगा नहीं हे। आज समझ में आ रहा हे। उत्तरप्रदेश के एक छोटेसे गांव से आना होता हे हमारा। पिताजी पंडित हे। घर के बड़ी बेटी हे हम।
एक छोटा भाई भी हे हमारा। पिताजी का काफी नाम हे आस पास के इलाकों में। हमे बड़े प्यार से पाला हे उन्होंने। स्वभाब से एक दम सांत हे हमारे पिताजी। भगबान पे काफी गेहरी आस्था हे उनकी। और माँ, वो तो हम सबकी आत्मा हे। घर को घर माँ ने ही तो बनाया हे।
जिन्दगी एक फिसलती हुई डोर हे जिसे मेने कईं बार थामने की कोशिश की पर न थाम सकी । आज मुंबई में नौकरी लग गयी हे। सब खुस हे। में भी बेहद खुस हूँ। अपने सपनो को खुली आँखों से जीने जा रही हूँ।
वो दिन भी आखिर आ ही गया जिस दिन का इंतज़ार बनिता को कबसे था। आखिर किसे अच्छा नही लगता अपने सपनो को जीने में।
देखते ही देखते दो महीने बीत चुकें हे। बनिता अपने सपनो को जी तो रहीथी पर क्या वो खुस थी ?
सुबह सुबह उठने पे माँ की बेहद याद आती हे। अगले महीने जब जाउंगी तो माँ के गोद में सर रख के सो जाउंगी। यहाँ नींद भी तो नहीं आती ठीकसे। छत पे बैठे बनिता मन ही मन ये सब सोचे जा रही थी।
दिन का तो चलो ठीक ठाक हे ,पर ये रात की खामोशियों का क्या किया जाये। क्या ये रात वाकई में इतनी गेहरी और लम्बी होती हे। अक्सर छत पे जाकर बैठा करती हूँ , उन खामोशियों को महसूस करने की जुस्तजू में अक्सर आंखे नम हो जाती हे।

पिताजी की एक बात याद आती हे की वो अक्सर काहा करते “जीबन में हमे कमजोर नहीं होना हे वल्कि खुद को इतना मजबूत बनाना हे की हम किसी को सहारा देने लायक बन सके “
इस भाग दौड़ से भरी सेहर में आपका अपना कोई नहीं ये बात जानने में मुझे ज्यादा दिन नहीं लगे। जीने की होड़ में इंसान जीने का मतलब ही भूल चूका हे। पर एक बात समझ में आचुकी हे की आप इस भीड़ में खड़े नहीं रह सकते, आपको भी भागना होगा।
इंसानी जज़्बात की कीमत यहाँ सिर्फ इतनी हे के हवाओं को मुठी में कैद करने की एक नाकाम कोशिश जितनी। खेर आपको जीना तो होगा ही। सपने हमे जीने का नया आसार देती हैं।
पर उनकी कीमत चुकापाना बेहत मुश्किल होता हे । आज की रात भी पुरानी रातो जैसी ही हे। दिसम्बर का महीना हे आसमानो में सर्दी की एक हलकी फुलकी लहर भी मेहसूस हो रही हे। लेकिन गाडिओं की सोर देर रात तक आपके कानो में दस्तक देती रहेंगी।
हमारा गांव तो अब चैन की सांसे लेके सो गया होगा। माँ और पिताजी भी सो गए होंगे ,या फिर वो दोनों भी मेरी तरह अपने आँखों से झूट बोल रहे होंगे।
आज ऑफिस से आने के बाद माँ से बात हुई , माँ के प्यारे प्यारे दो बातें सुनके आंखोसे जज्बाद गिरने लगे। बड़ी मुस्किल से संभाला मेने खुद को। जिद भी तो मेने ही कि थी ।
गाऊँ में क्या हे ? यहाँ कुछ नहीं मिलने वाला। बड़े सेहर में नौकरी की अछि स्कोप हे। मेने ही मनाया था उन दोनों को। स्टेशन छोड़ने आये थे मेरे पिताजी मुझे। यूँ तो बहत मजबूत दिल के हे , पर उनके आंखे भी मुझे जाने की इजाजत नहीं दे पा रहेथे उसदिन।
ऐसा कहाँ लिखा हे एक पिता को अपने जज्बात दिखने का हक़ नहीं हे ? बस उनके लब्ज़ खामोस थे, वो अलग बात हे।
हमारी एक दीदी रहती थी मुंबई में उनके भरोसे ही पिताजी ने हमे हमारे सपने पूरा करने भेजदिया यहाँ। मुंबई पहंचा तो दीदी आईथी स्टेशन मुझे लेने। पहली बार अपने आंखोके दायरे को खुला छोड़ दिया था मैंने। मुंबई ,सपनो का सेहर। क्या वाकई में ?
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